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बोलती बंद है ………..

kabhee kabhee (कभी कभी )
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बोलती बंद है ………..

मैं भारत की राजनीति हूँ। आज मैं अत्यंत दुखी और बीमार हूँ। मेरी इस दशा के लिए कोई अन्य देश अथवा कोई दैवीय आपदा दोषी नहीं है बल्कि मेरे अपने सपूत हैं जिन्हें मैंने छक छक कर अपना दूध पिलाया है। आज यही सपूत मेरी साड़ी खींचने में लगे हुए हैं।

मैं सदैव ऐसी मरियल और बीमार नहीं रही हूँ। शुभ्र धवल कपड़ों में देदीप्यमान मेरा वह अस्तित्व आज भी मेरे जेहन में रचा बसा है  जब मैं नई नवेली भारत में आयी थी। मैं इस देश के स्वतंत्रता सेनानियों की अमानत की तरह थी। मेरे आँचल की छाया में स्वतंत्र भारत के बहुत से सच्चरित्र सपूतों ने देश की सेवा की शपथ ली थी। मुझे गर्व हुआ जब इन उत्साही सपूतों के दिन रात किये गए वैचारिक और शारीरिक श्रम से देश ने विश्व में अहम मुकाम हासिल किया। खादी के वस्त्र और गांधी टोपी मेरी पहचान बन गयी। मैं बहुत प्रसन्न और खुशहाल थी।

सरकारी सहायता के दौर में मेरे माथे पर कलंक के दाग लगने शुरू हो गये। कुछ लालची नेताओं ने सरकारी सहायता की लूट खसोट के नए नए तरीके ईजाद किये और फिर दोनों हाथों से धन संचित करने लगे। उनका दुर्भाग्य कि यह धन, धन न कहला कर कालाधन कहलाया। जब मैंने पहली बार ऐसे धन का नाम सुना तो एक बार मुझे विश्वास ही नहीं हुआ कि ऐसा घृणित और निंदनीय कार्य मेरे आँचल का दूध पीने वालों ने किया है। उफ़ .. कालान्तर में घोटालों की कालिमा ने न केवल मेरे चेहरे को काला किया बल्कि मेरे शुभ्र वस्त्रों के  साथ मेरी अंतरात्मा  को भी काला कर दिया। गौरवशाली इतिहास को जीने वाले व्यक्तित्व के लिए ऐसा समय जीते जी मृत्यु के सामान है।

मैं सोचने को विवश हूँ कि क्या मेरे दूध में कोई विकृति आ गयी है जिसके कारण मेरे बच्चे अब विकृत मानसिकता के शिकार होने लगे हैं? क्या मेरी कोख से ऐसे ही बच्चे जन्म लेंगे जो कदम दर कदम मुझे कलंकित करते रहेंगे?  क्या मेरी साड़ी को मेरे ही बच्चे खींच कर मुझे नग्न करते रहेंगे? क्या मेरे शरीर पर  शुभ्र और धवल वस्त्र कभी फिर से सजेंगे? प्रत्येक पंचवर्षीय चुनावों से पूर्व मेरी अपेक्षा बढ़ जाती है और हर चुनाव के बाद अगले चुनाव तक के लिए मृतप्राय हो जाती है। एक बार फिर से  २०१४ के चुनाव को देखते हुए मेरी अपेक्षा  पुनः बलवती हुयी है। फिलहाल तो मेरी बोलती बंद है …..

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