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पूर्ण विराम प्राप्ति की इच्छा

kabhee kabhee (कभी कभी )
kabhee kabhee (कभी कभी )
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नीरव एकाकी हृदय भवन में, आज आ गया कोई

शुभ्र धवलतम पृष्ठ पे अपना, चित्र बना गया कोई


अब तक मेरा जीवन था, एक बंजर धरती जैसा

वारि भरा जलधर बनकर के, झड़ी लगा गया कोई


पतझड़ का था चिर निवास मेरे मन उपवन में

बन आह्लादक आमोदक ऋतुराज छा गया कोई


विरह वेदना बहती रहती मेरे मन अंतर में

हर्ष भरे गीतों को लेकिन आज गा गया कोई


खण्डहर जैसा पडा हुआ था मेरा मनः पटल

बहुरंगी सपनों को लाकर उन्हें सजा गया कोई


शव सदृश व प्रवाहहीन थी सभी उमंगें मेरी

नवजीवन की वर्षा करके उन्हें जगा गया कोई


विवशता के बंधन में मैंने आँसू ही बहाए थे

सुना सुना छंद हास्य के आज हँसा गया कोई


बिखर गयीं थी आशाएं अनंत रात्रि की चादर में

नयी सुबह की सुखद बात की आस दिला गया कोई


इच्छाओं के शुष्क पुष्प थे दुःख के आँचल में

उन्हें दृष्टि स्पर्श मात्र से पुनः खिला गया कोई


पूर्ण विराम प्राप्ति की इच्छा थी ‘जय’ प्राण पथिक की

अति समीप्य उद्देश्य बिंदु को, आज हटा गया कोई  ||

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